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जांच एजेंसियों का सच और आम आदमी को हर तरफ नज़र आता झूठ

Roznama
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कौन करेगा भरोसा ऐसी ऐजेंसियों पर जो अपनी तत्परता दिखने के लिए किसी की भी गिरफ़्तारी दिखा देती हैं? असीमानंद का तथाकथित कबूलनामा आम जनता के इस बढ़ते हुए शक को और पुख्ता करता हुआ दिख रहा है. इस बारे में टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट पढने के बाद ऐसा लगा कि अब बात भरोसे से आगे बढ़ गयी है. अब तो इस बात की फिक्र है कि आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था कि रीढ़ समझी जाने वाली ये एजेंसियां क्या वाकई इस काबिल हैं, या ये सब एजेंसियां और ये सारे इन्तेजाम हमारे हुक्मरानों का आम जनता को भुलावे में रखने का एक और तरीका है.

IBN की यह रिपोर्ट देख कर तो ऐसा लगता है कि किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता. आम आदमी के पास अविश्वास और असुरक्षा के डर में जीने के अलावा और कोई रास्ता नहीं.

पर ये सब डर, भुलावा, अविश्वास बस थोड़ी देर के लिए ही महसूस होता है, क्यूंकि इस पोस्ट को लिखने/पढ़ने के बाद मैं और आप फिर जिंदगी की खुशनुमा उधेड़बुन में मस्त हो जायेंगे. कहीं किसी शौपिंग मॉल में, किसी कॉफ़ी शॉप में, या किसी सास-बहू-बिग बॉस में. ठीक ही तो है, आखिर ये देश-जमाने कि फिक्र करने का काम और लोगों का भी तो है, तो हम ही क्यूँ मरें इस फिक्र में?

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